by जी।के. अवधिया

किसी भी मनुष्य की पहचान उसके व्यक्तित्व से ही होती है। प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी को कभी भी असफलता का मुख नहीं देखना पड़ता, वे आसानी के साथ दूसरों को प्रभावित कर लेते हैं तथा उन्हें अपना मित्र बना लेते हैं।

नीचे कुछ बातें दी जा रही हैं जिनकी सहायता से हम अपने व्यक्तित्व का विकास करके स्वयं को प्रभावशाली कैसे बना सकते हैं:

दूसरों के प्रति स्वयं का व्यवहार

  • दूसरों को अपमानित न करें और न ही कभी दूसरों की शिकायत करें। याद रखें कि अपमान के बदले में अपमान ही मिलता है।
  • दूसरों में जो भी अच्छे गुण हैं उनकी ईमानदारी के साथ दिल खोल कर प्रशंसा करें। झूठी प्रशंसा कदापि न करें। यदि आप किसी की प्रशंसा नहीं कर सकते तो कम से कम दूसरों की निन्दा कभी भी न करें। किसी की निन्दा करके आपको कभी भी किसी प्रकार का लाभ नहीं मिल सकता उल्ट आप उसकी नजरों गिर सकते हैं।
  • अपने सद्भाव से सदैव दूसरों के मन में अपने प्रति तीव्र आकर्षण का भाव उत्पन्न करने का प्रयास करें।

सभी को पसंद आने वाला व्यक्तित्व

  • दूसरों में वास्विक रुचि लें। यदि आप दूसरों में रुचि लेंगे तो दूसरे भी अवश्य ही आप में रुचि लेंगे।
    दूसरों को सच्ची मुस्कान प्रदान करें।
  • प्रत्येक व्यक्ति के लिये उसका नाम सर्वाधिक मधुर, प्रिय और महत्वपूर्ण होता है। यदि आप दूसरों का नाम बढ़ायेंगे तो वे भी आपका नाम अवश्य ही बढ़ायेंगे। व्यर्थ किसी को बदनाम करने का प्रयास कदापि न करें।
  • अच्छे श्रोता बनें और दूसरों को उनके विषय में बताने के लिये प्रोत्साहित करें।
  • दूसरों की रुचि को महत्व दें तथा उनकी रुचि की बातें करें। सिर्फ अपनी रुचि की बातें करने का स्वभाव त्याग दें।
  • दूसरों के महत्व को स्वीकारें तथा उनकी भावनाओं का आदर करें।

अपने सद्विचारों से दूसरों को जीतें

  • तर्क का अंत नहीं होता। बहस करने की अपेक्षा बहस से बचना अधिक उपयुक्त है।
  • दूसरों की राय को सम्मान दें। 'आप गलत हैं' कभी भी न कहें।
  • यदि आप गलत हैं तो अपनी गलती को स्वीकारें।
  • सदैव मित्रतापूर्ण तरीके से पेश आयें।
  • दूसरों को अपनी बात रखने का पूर्ण अवसर दें।
  • दूसरों को अनुभव करने दें कि आपकी नजर में उनकी बातों का पूरा पूरा महत्व है।
  • घटनाक्रम को दूसरों की दृष्टि से देखने का ईमानदारी से प्रयास करें।
  • दूसरों की इच्छाओं तथा विचारों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनायें।
  • दूसरों को चुनौती देने का प्रयास न करें।
  • अग्रणी बनें: बिना किसी नाराजगी के दूसरों में परिवर्तन लायें
  • दूसरों का सच्चा मूल्यांकन करें तथा उन्हें सच्ची प्रशंसा दें।
  • दूसरों की गलती को अप्रत्यक्ष रूप से बतायें।
  • आपकी निन्दा करने वाले के समक्ष अपनी गलतियों के विषय में बातें करें।
  • किसी को सीधे आदेश देने के बदले प्रश्नोत्तर तथा सुझाव वाले रास्ते का सहारा लें।
  • दूसरों के किये छोटे से छोटे काम की भी प्रशंसा करें।
  • आपके अनुसार कार्य करने वालों के प्रति धन्यवाद ज्ञापन करें।

जी।के. अवधिया हिंदी के प्रति समर्पित लेखक हैं। कृपया उनके हिंदी वेबसाइट का अवलोकन करें!
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शुक्रवार, 9 मई 2008

टोबा टेक सिंह

by सआदत हसन मंटो

बंटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख्याल आया कि अख्लाकी कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिन्दुस्तान के पागलखानों में हैं उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाय और जो हिन्दू और सिख पाकिस्तान के पागलखानों में है उन्हें हिन्दुस्तान के हवाले कर दिया जाय।

मालूम नहीं यह बात माकूल थी या गैर-माकूल थी। बहरहाल, दानिशमंदों के फैसले के मुताबिक इधर-उधर ऊँची सतह की कांफ्रेंसें हुई और िदन आखिर एक दिन पागलों के तबादले के लिए मुकर्रर हो गया। अच्छी तरह छान बीन की गयी। वो मुसलमान पागल जिनके लवाहिकीन (सम्बन्धी ) हिन्दुस्तान ही में थे वहीं रहने दिये गये थे। बाकी जो थे उनको सरहद पर रवाना कर दिया गया। यहां पाकिस्तान में चूंकि करीब-करीब तमाम हिन्दु सिख जा चुके थे इसलिए किसी को रखने-रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिन्दू-सिख पागल थे सबके सब पुलिस की हिफाजत में सरहद पर पहुंचा दिये गये।
उधर का मालूम नहीं। लेकिन इधर लाहौर के पागलखानों में जब इस तबादले की खबर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चीमेगोइयां होने लगी। एक मुसलमान पागल जो बारह बरस से हर रोज बाकायदगी के साथ ''जमींदार'' पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा, ''मोल्हीसाब। ये पाकिस्तान क्या होता है ?'' तो उसने बड़े गौरो फिक्र के बाद जवाब दिया, ''हिन्दुस्तान में एक ऐसी जगह है जहां उस्तरे बनते हैं।''
ये जवाब सुनकर उसका दोस्त मुतमइन हो गया।

इसी तरह एक और सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा, ''सरदार जी हमें हिन्दुस्तान क्यों भेजा जा रहा है - हमें तो वहां की बोली नहीं आती।''
दूसरा मुस्कराया, '' मुझे तो हिन्दुस्तान की बोली आती है -- हिन्दुस्तानी बड़े शैतानी आकड़ -आकड़ फिरते हैं।''

एक मुसलमान पागल ने नहाते-नहाते '' पाकिस्तान जिन्दाबाद'' का नारा इस जोर से बुलन्द किया कि फर्श पर फिसल कर गिरा और बेहोश हो गया।

बाज पागल ऐसे थे जो पागल नहीं थे। उनमें अकसरियत ऐसे कातिलों की थी जिनके रिश्तेदारों ने अफसरों को दे- दिलाकर पागलखाने भिजवा दिया था कि फांसी के फंदे से बच जायें। ये कुछ-कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान क्या तकसीम हुआ और यह पाकिस्तान क्या है, लेकिन सही वाकेआत से ये भी बेखबर थे। अखबारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे। उनकी गुफ्तगू (बातचीत) से भी वो कोई नतीजा बरआमद नहीं कर सकते थे। उनको सिर्फ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्ना है, जिसको कायदे आजम कहते हैं। उसने मुसलमानों के लिए एक अलाहेदा मुल्क बनाया है जिसका नाम पाकिस्तान है। यह कहां है ?इसका महल-ए- वकू (स्थल) क्या है इसके मुतअल्लिक वह कुछ नहीं जानते थे। यही वजह है कि पागल खाने में वो सब पागल जिनका दिमाग पूरी तरह माउफ नहीं हुआ था, इस मखमसे में गिरफ्तार थे कि वो पाकिस्तान में हैं या हिन्दुस्तान में। अगर हिन्दुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है। अगर वो पाकिस्तान में है तो ये कैसे हो सकता है कि वो कुछ अरसा पहले यहां रहते हुए भी हिन्दुस्तान में थे। एक पागल तो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान, और हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ्तार हुआ कि और ज्यादा पागल हो गया। झाडू देते-देते एक दिन दरख्त पर चढ़ गया और टहनी पर बैठ कर दो घंटे मुस्तकिल तकरीर करता रहा, जो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के नाजुक मसअले पर थी। सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने को कहा तो वो और ऊपर चढ़ गया। डराया, धमकाया गया तो उसने कहा -- ''मैं न हिन्दुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में -- मैं इस दरख्त पर ही रहूंगा।''

एक एम एससी पास रेडियो इंजीनियर में, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिल्कुल अलग-थलग, बाग की एक खास रविश (क्यारी) पर सारा दिन खामोश टहलता रहता था, यह तब्दीली नमूदार हुई कि उसने तमाम कपड़े उतारकर दफादार के हवाले कर दिये और नंगधंडंग़ सारे बाग में चलना शुरू कर दिया।

यन्यूट के एक मौटे मुसलमान पागल ने, जो मुस्लिम लीग का एक सरगर्म कारकुन था और दिन में पन्द्रह-सोलह मरतबा नहाता था, यकलख्त (एकदम) यह आदत तर्क (छोड़)कर दी। उसका नाम मुहम्मद अली था। चुनांचे उसने एक दिन अपने जिंगले में ऐलान कर दिया कि वह कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना है। उसकी देखादेखी एक सिख पागल मास्टर तारासिंह बन गया। करीब था कि उस जिंगले में खून-खराबा हो जाय, मगर दोनों को खतरनाक पागल करार देकर अलहदा-अलहदा बन्द कर दिया गया।
लाहौर का एक नौजवान हिन्दू वकील था जो मुहब्बत में मुब्तिला होकर पागल हो गया था। जब उसने सुना कि अमृतसर हिन्दुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। इसी शहर की एक हिन्दू लड़की से उसे मुहब्बत हो गयी थी। गो उसने इस वकील को ठुकरा दिया था, मगर दीवानगी की हालत में भी वह उसको नहीं भूला था। चुनांचे वह उन तमाम मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था, जिन्होंने मिल मिलाकर हिन्दुस्तान के दो टुकड़े कर दिये-- उसकी महबूबा हिन्दुस्तानी बन गयी और वह पाकिस्तानी।
जब तबादले की बात शुरू हुई तो वकील को कई पागलों ने समझाया कि वह दिल बुरा न करे,उसको हिन्दुस्तान वापस भेज दिया जायेगा। उस हिन्दुस्तान में जहां उसकी महबूबा रहती है। मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था-- इस ख्याल से कि अमृतसर में उसकी प्रैक्टिस नहीं चलेगी।

यूरोपियन वार्ड में दो एंग्लो-इण्डियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिन्दुस्तान को आजाद करके अंग्रेज चले गये हैं तो उनको बहुत रंज हुआ। वह छुप-छुप कर इस मसअले पर गुफ्तगू करते रहते कि पागलखने में उनकी हैसियत क्या होगी। यूरापियन वार्ड रहेगा या उड़ जायगा। ब्रेकफास्ट मिलेगा या नहीं। क्या उन्हें डबलरोटी के बजाय ब्लडी इण्डियन चपाती तो जहरमार नहीं करनी पड़ेगी ?
एक सिख था जिसको पागलखाने में दाखिल हुए पन्द्रह बरस हो चुके थे। हर वक्त उसकी जबान पर अजीबोगरीब अल्फाज सुनने में आते थे, '' औपड़ दी गड़गड़ दी एन्क्स दी बेध्याना दी मूंग दी दाल आफ दी लालटेन।'' वो न दिन में सोता था न रात में। पहरेदारों का कहना था कि पन्द्रह बरस के तवील अर्से में एक एक लम्हे के लिए भी नहीं सोया। लेटा भी नहीं था। अलबत्ता किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था।

हर वक्त खड़ा रहने से उसके पांव सूज गये थे। पिंडलियां भी फूल गयीं थीं। मगर इस जिस्मानी तकलीफ के बावजूद वह लेटकर आराम नहीं करता था। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुतअिल्लक जब कभी पागलखाने में गुफ्तगू होती थी तो वह गौर से सुनता था। कोई उससे पूछता कि उसका क्या खयाल है तो बड़ी संजीदगी से जवाब देता, ''औपड़ दी गड़गड़ दी एन्क्स दी बेध्याना दी मूंग दी दाल आफ पाकिस्तान गवर्नमेंट।''

लेकिन बाद में आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट की जगह आफ दी टोबा टेकसिंह गवर्नमेंट ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है जहां का वो रहने वाला है। लेकिन किसी को भी नहीं मालूम था कि वो पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में। जो यह बताने की कोशिश करते थे वो खुद इस उलझाव में गिरफ्तार हो जाते थे कि स्याल कोटा पहले हिन्दुस्तान में होता था, पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है। क्या पता है कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है कल हिन्दुस्तान में चला जायगा या सारा हिन्दुस्तान हीं पाकिस्तान बन जायेगा। और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब नहीं हो जायेंगे।
उस सिख पागल के केस छिदरे होके बहुत मुख्तसर रह गये थे। चूंकि वह बहुत कम नहाता था इसलिए दाढ़ी और बाल आपस में जम गये थे जिनके बाइस (कारण) उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गयी थी। मगर आदमी बेजरर (अहानिकारक) था। पन्द्रह बरसों में उसने किसी से झगड़ा-फसाद नहीं किया था। पागलखाने के जो पुराने मुलाजिम थे वो उसके मुतअलिक इतना जानते थे कि टोबा टेकसिंह में उसकी कई जमीनें थीं। अच्छा खाता-पीता जमींदार था कि अचानक दिमाग उलट गया। उसके रिश्तेदार लोहे की मोटी-मोटी जंजीरों में उसे बांधकर लाये और पागलखाने में दाखिल करा गये।

महीने में एक बार मुलाकात के लिए ये लोग आते थे और उसकी खैर-खैरियत दरयाफ्त करके चले जाते थे। एक मुप्त तक ये सिलसिला जारी रहा, पर जब पाकिस्तान हिन्दुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उनका आना बन्द हो गया।

उसका नाम बिशन सिंह था। मगर सब उसे टोबा टेकसिंह कहते थे। उसको ये मालूम नहीं था कि दिन कौन-सा है, महीना कौन-सा है या कितने दिन बीत चुके हैं। लेकिन हर महीने जब उसके अजीज व अकारिब (सम्बन्धी) उससे मिलने के लिए आते तो उसे अपने आप पता चल जाता था। चुनांचे वो दफादार से कहता कि उसकी मुलाकात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदन पर खूब साबुन घिसता और सिर में तेल लगाकर कंघा करता। अपने कपड़े जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवा के पहनता और यूं सज-बन कर मिलने वालों के पास आता। वो उससे कुछ पूछते तो वह खामोश रहता या कभी-कभार ''ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी वेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी लालटेन '' कह देता।उसकी एक लड़की थी जो हर महीने एक उंगली बढ़ती-बढ़ती पन्द्रह बरसों में जवान हो गयी थी। बिशन सिंह उसको पहचानता ही नहीं था। वह बच्ची थी जब भी आपने बाप को देखकर रोती थी, जवान हुई तब भी उसकी आंख में आंसू बहते थे।पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का किस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है। जब इत्मीनान बख्श (सन्तोषजनक) जवाब न मिला तो उसकी कुरेद दिन-ब- दिन बढ़ती गयी। अब मुलाकात नहीं आती है। पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलने वाले आ रहे हैं, पर अब जैसे उसके दिल की आवाज भी बन्द हो गयी थी जो उसे उनकी आमद की खबर दे दिया करती थी।

उसकी बड़ी ख्वाहिश थी कि वो लोग आयें जो उससे हमदर्दी का इजहार करते थे ओर उसके लिए फल, मिठाइयां और कपड़े लाते थे। वो उनसे अगर पूछता कि टोबा टेकसिंह कहां है तो यकीनन वो उसे बता देते कि पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में, क्योंकि उसका ख्याल था कि वो टोबा टेकसिंह ही से आते हैं जहां उसकी जमीनें हैं।

पागलखाने में एक पागल ऐसा भी था जो खुद को खुदा कहता था। उससे जब एक दिन बिशन सिंह ने पूछा कि टोबा टेकसिंह पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में तो उसने हस्बेआदत (आदत के अनुसार) कहकहा लगाया और कहा, ''वो न पाकिस्तान में है न हिन्दुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म नहीं लगाया।''

बिशन सिंह ने इस खुदा से कई मरतबा बड़ी मिन्नत समाजत से कहा कि वो हुक्म दे दे ताकि झंझट खत्म हो, मगर वो बहुत मसरूफ था, इसलिए कि उसे ओर बेशुमार हुक्म देने थे। एक दिन तंग आकर वह उस पर बरस पड़ा, ''औपड़ दी गड़गड़ दी एन्क्स दी बेध्याना दी मूंग दी दाल आफ दी वाहे गुरूजी दा खलसा एन्ड वाहे गुरूजी दी फतह। जो बोले सो निहाल सत सिरी अकाल।'' उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसलमान के खुदा हो, सिखों के खुदा होते तो जरूर मेरी सुनते। तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेकसिंह का एक मुसलमान दोस्त मुलाकात के लिए आया। पहले वह कभी नहीं आया था। जब बिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ हट गया और वापस आने लगा मगर सिपाहियों ने उसे रोका, ''ये तुमसे मिलने आया है -- तुम्हारा दोस्त फजलदीन है।''

बिशन सिंह ने फजलदीन को देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फजलदीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा, ''मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूं लेकिन फुर्सत ही न मिली -- तुम्हारे सब आदमी खैरियत से चले गये थे मुझसे जितनी मदद हो सकी मै।ने की तुम्हारी बेटी रूप कौर '' वह कुछ कहते कहते रूक गया । बिशन सिंह कुछ याद करने लगा --

''बेटी रूप कौर '' ।

फजलदीन ने रूक कर कहा, '' हां वह भी ठीक ठाक है। उनके साथ ही चली गयी थी।''

बिशन सिंह खामोश रहा। फजलदीन ने कहना शुरू किया, ''उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम्हारी खैर-खैरियत पूछता रहूं। अब मैंने सुना है कि तुम हिन्दुस्तान जा रहे हो। भाई बलबीर सिंह और भाई बिधावा सिंह से सलाम कहना-- और बहन अमृत कौर से भी। भाई बलबीर से कहना फजलदीन राजी-खुशी है -- वो भूरी भैंसे जो वो छोड़ गये थे उनमें से एक ने कट्टा दिया है दूसरी के कट्टी हुई थी पर वो छ: दिन की हो के मर गयी और और मेरे लायक जो खिदमत हो कहना, मै हर वक्त तैयार हूं और ये तुम्हारे लिए थोड़े से मरून्डे लाया हूं।''

बिशन सिंह ने मरून्डे की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फजलदीन से पूछा; ''टोबा टेकसिंह कहां है ? ''

''टोबा टेकसिंह,'' उसने कद्रे हैरत से कहा -- ''कहां है ! वहीं है, जहां था।''

बिशन सिंह ने पूछा, ''पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में ?''

''हिन्दुस्तान में -- नहीं नही पाकिस्तान में '' फजलदीन बौखला-सा गया। बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया, ''औपड़ दी गड़गड़ दी एन्क्स दी बेध्याना दी मूंग दी दाल आफ दी पाकिस्तान एन्ड हिन्दुस्तान आफ दी दुर फिटे मुंह।''

तबादले की तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आने वाले पागलों की फेहरिस्तें (सूचियां) पहुंच गयी थीं, तबादले का दिन भी मुकरर्र हो गया था। सख्त सर्दियां थीं। जब लाहौर के पागलखाने से हिन्दू-सिख पागलों से भरी हुई लारियां पुलिस के मुहाफिज दस्ते के साथ् रवाना हुई तो मुतअल्लिका (संबंधित ) अफसर भी हमराह थे। वाहगा के बार्डर पर तरफैन के (दोनों तरफ से) सुपरिटेंडेंट एक दूसरे से मिले और इब्तेदाई कार्रवाई खत्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया जो रात भर जारी रहा।

पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफसरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। बाज तो बाहर निकलते ही नहीं थे। जो निकलने पर रजामन्द होते थे, उनको संभालना मुश्किल हो जाता था क्योंकि इधर-उधर भाग उठते थे। जो नंगे थे उनको कपड़े पहनाये जाते, तो वो फाड़कर अपने तन से जुदा कर देते क़ोई गालियां बक रहा है, कोई गा रहा है। आपस में लड़-झगड़ रहे हैं, रो रहे हैं, बक रहे हैं। कान पड़ी आवाज सुनायी नही देती थी-- पागल औरतों का शेरोगोगा अलग था और सर्दी इतने कड़ाके की थी कि दांत बज रहे थे।

पागलों की अकसरियत इस तबादले के हक में नहीं थी। इसलिए कि उनकी समझ में आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़कर कहां फेंका जा रहा है। चन्द जो कुछ सोच रहे थे-- ''&

सआदत हसन -मंटो पाकिस्तान के विख्यात कथाकार।
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by हरिप्रसाद अवधिय&

विनाश से सृजन की ओर-मुख मोड़ और चल,
धूर्त-पथ त्याग कर,मानव मन बन निश्छल।
विनाशिनी संहारिणी शक्ति-तेरी ही कृति का प्रतिफल,
मोड़ दे अपनी दिशा,उत्फुल्ल कर शतदल कमल,
कृत्रिम से प्रकृति उत्तमशान्त सुन्दर धवल,
तो फिर ओ अशान्त मन,चल वापस, प्रकृति ओर वापस चल।


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by जाकिर अली "रजनीश"

आसमान में बादल छाए होने के कारण उस समय काफी अंधेरा था। हालांकि घड़ी में अभी साढ़े चार ही बजे थे, लेकिन इसके बावजूद लग रहा था जैसे शाम के सात बज रहे हों। लेकिन सलिल पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह अपने हाथ में गुलेल लिए सावधानीपूर्वक अगे की ओर बढ़ रहा था। उसे तलाश थी किसी मासूम जीव की, जिसे वह अपना निशाना बना सके। नन्हें जीवों पर अपनी गुलेल का निशानालगाकर सलिल को बड़ा मज़ा आता। जब वह जीव गुलेल की चोट से बिलबिला उठता, तो सलिल की प्रसन्नता की कोई सीमा न रहती। वह खुशी के कारण नाच उठता।अचानक सलिल को लगा कि उसके पीछे कोई चल रहा है। उसने धीरे से मुड़ कर देखा। देखते ही उसके पैरों के नीचे की ज़मीन निकल गयी और वह एकदम से चिल्ला पड़ा।सलिल से लगभग बीस कदम पीछे दो चिम्पैंजी चले आ रहे थे। सलिल का शरीर भय से कांप उठा। उसने चाहा कि वह वहां से भागे। लेकिन पैरों ने उसका साथ छोड़ दिया। देखते ही देखते दोनों चिम्पैंजी उसके पास आ गये। उन्होंने सलिल को पकड़ा और वापस उसी रास्ते पर चल पड़े, जिधर से वे आए थे।कुछ ही पलों में सलिल ने अपने आप को एक बड़ से चबूतरे के सामने पाया। चबूतरे पर जंगल का राजा सिंह विराजमान था और उसके सामने जंगल के तमाम जानवर लाइन से बैठे हुए थे।सलिल को जमीन पर पटकते हुए कए चिम्पैंजी ने राजा को सम्बोधित कर कहा, “स्वामी, यही है वह दुष्ट बालक, जो जीवों को अपनी गुलेल से सताता है।” शेर ने सलिल को घूर कर देखा, “क्यों मानव पुत्र, तुम ऐसा क्यों करते हो?”सलिल ने बोलना चाहा, लेकिन उसकी ज़बान से केाई शब्द न फूटा। वह मन ही मन बड़बड़ाने लगा, “क्योंकि मैं जानवरों से श्रेष्ठ हूं।”“देखा आपने स्वामी ?” इस बार बोलने वाला चीता था, “कितना घमंड है इसे अपने मनुष्य होने का। आप कहें तो मैं अभी इसका सारा घमंड निकाल दूं ?” कहते हुए चीता अपने दाहिने पंजे से ज़मीन खरोंचने लगा।सलिल हैरान कि भला इन लोगों को मेरे मन की बात कैसे पता चल गयी? लेकिन चीते की बात सुनकर वह भी कहां चुप रहने वाला था। वह पूरी ताकत लगाकर बोल ही पड़ा, “हां, मनुष्य तुम सब जीवों से श्रेष्ठ है, महान है। और ये प्रक्रति का नियम है कि बड़े लोग हमेशा छोटों को अपनी मर्जी से चलाते हैं।”तभी आस्ट्रेलियन पक्षी ‘नायजी स्क्रब’, जिसकी शक्ल कोयल से मिलती मिलती–जुलती है, उड़ता हुआ वहां आया और सलिल को डपट कर बोला, “बहुत नाज़ है तुम्हें अपनी आवाज़ पर, क्योंकि अन्य जीव तुम्हारी तरह बोल नहीं सकते। पर इतना जान लो कि सारे संसार में मेरी आवाज़ का कोई मुकाबला नहीं। दुनिया की किसी भी आवाज़ की नकल कर सकती हूं मैं। ...क्या तुम ऐसा कर सकते हो?” सलिल की गर्दन शर्म से झुक गयी और नायजी स्क्रब अपने स्थान पर जा बैठी।सलिल के बगल में स्थित पेड़ की डाल से अपने जाल के सहारे उतरकर एक मकड़ी सलिल के सामने आ गयी और फिर उस पर से सलिल की शर्ट पर छलांग लगाती हुई बोली, “देखने में छोटी ज़रूर हूं, पर अपनी लम्बाई से 120 गुना लम्बी छलांग लगा सकत हूं। क्या तुम मेरा मुकाबला कर सकते हो? कभी नहीं। तुम्हारे अंदर यह क्षमता ही नहीं। पर घमंड ज़रूर है 120 गुना क्यों?” कहते हुए उसने दूसरी ओर छलांग मार दी।तभी गुटरगूं करता हुआ एक कबूतर सलिल के कंधे पर आ बैठा और अपनी गर्दन को हिलाता हुआ बोला, “मेरी याददाश्त से तुम लोहा नहीं ले सकते। दुनिया के किसी भी कोने में मुझे ले जाकर छोड़ दो, मैं वापस अपने स्थान पर आ जाता हूं।”सलिल सोच में पड़ गया और सर नीचा करके ज़मीन पर अपना पैर रगड़ने लगा।“मैं हूं गरनार्ड मछली। जल, थल, नथ तीनों जगह पर मेरा राज है।” ये स्वर थे पेड़ पर बैठी एक मछली के, “पानी में तैरती हूं, आसमान में उड़ती हूं और ज़मीन पर चलती हूं। अच्छा, मुझसे मुकाबला करोगे ?”ठीक उसी क्षण सलिल के कपड़ों से निकल कर एक खटमल सामने आ गया और धीमें स्वर में बोलाश्, “सहनशक्ति में मनुष्य मुझसे बहुत पीछे हैं। यदि एक साल भी मुझे भोजन न मिले, तो हवा पीकर जीवित रह सकता हूं। तुम्ळारी रतह नहीं कि एक वक्त का खाना नमिले, तो आसमान सिर पर उठा लो।”खटमल के चुप होते ही एल्सेशियन नस्ल का कुत्ता सामने आ पहुंचा। वह भौंकते हुए बोला, “स्वामीभक्ति में मनुष्य मुझसे बहुत पीछे हैं। पर इतना और जानलो कि मेरी घ्राण शक्ति (सूंघने की क्षमता) भी तुमसे दस लाग गुना बेहतर है।”पत्ता खटकने की आवाज़ सुनकर सलिल चौंका और उसने पलटकर पीछे देखा। वहां पर ‘बार्न आउल’ प्रजाति का एक उल्लू बैठा हुआ था। वह घूर कर बोला, “इस तरह मत देखो घमण्डी लड़के, मेरी नज़र तुमसे सौ गुना तेज़ होती है समझे?”सलिल अब तक जिन्हें हेय और तुच्छ समझ रहा था, आज उन्हीं के आगे अपमानित हो रहा था। अन्य जीवों की खूबियों के आगे वह स्वयं को तुच्छ अनुभव करने लगा था। इससे पहले कि वह कुछ कहता या करता, दौड़ता हुआ एक गिरगिट वहां आ पहुंचा और अपनी गर्दन उठाते हुएबोला, “रंगबदलने की मेरी विशेषता तो तुमने पढी होगी, पर इतना और जान लो कि मैं अपनी आंखों से एक ही समय में अलग–अलग दिशाओं में एक साथ देख सकताहूं। मगर तुम ऐसा नहीं कर सकते। कभी नहीं कर कसते।”दोनों चिम्पैंजियों के मध्य खड़ा सलिल चुपचाप सब कुछ सुनता रहा। भला वह जवाब देता भी, तो क्या? उसमें कोई ऐसी खूबी थी भी तो नहीं, सिसे वह बयान करता। वह तो सिर्फ दूसरों को सताने में ही अभी तक आगे रहाथा।तभी चीते की आवाज सुनकर चलिल चौंका। वह कह रहा था, “खबरदार, भागने की कोशिश मत करना। क्योंकि मेरी 112 किमी0 प्रति घण्टे की रफतार है मेरी। और तुम मुझसे पार पाने के बारे में सपने में भी न सोच सकोगे। क्योंकि तुम्हारी यह औकात ही नहीं है।”“क्यों नहीं है औकात?” चीते की बात सुनकर सलिल अपना आपा खो बैठा और जोर से बोला, “मैं तुम सबसे श्रेष्ठ हूं, क्योंकि मेरे पास अक्ल है । और वह तुममें से किसी के भी पास नहीं है।”सलिल की बात सुनकर सामने के पेड़ की डाल से लटक रहा चमगादड़ अपनी जगह से बड़बड़ाया, “बड़ा घमण्ड है तुझे अपनी अक्ल पर नकनची मनुष्य। तूने हमेशा हम जीवों की विशेषताओं की नकल करने की कोशिश की है। जब तुम्हें मालूम हुआ कि मैं एक विशेष की प्रकार की अल्ट्रा साउंड तरंगे छोड़ता हूं, जो सामने पड़ने वाली किसी भी चीज़ से टकरा कर वापस मेरे पास लौट आती हैं, जिससे मुझे दिशा का ज्ञान होता है, तो मेरी इस विशेषता का चुराकरतुमने राडार बना लिया और अपने आप को बड़ा बु‍द्धिमान लगे?”“बहुत तेज़ है अक्ल तुम्हारी?” इस बार मकड़ी कुर्रायी, “ऐसी बात है तो फिर मेरे जाल जितना महीन व मज़बूत तार बनाकर दिखाओ। नहीं बना सकते तुम इतना महीन और मज़बूत तार। इस्पात के द्वारा बनाया गया इतना ही महीन तार मेरे जाल से कहीं कमज़ोर होगा। ...और तुम्हारे सामान्य ज्ञान में वृद्धि के लिए एक बात और बता दूं कि यदि मेरा एक पौंड वजन का जाल लिया जाए, तो उसे पूरी पृथ्वी के चारों ओर सात बार पलेटा जा सकता है।”इतने में एक भंवरा भी वहां आ पहुंचा और भनभनाते हुए बोला, “वाह री तुम्हारी अक्ल? जो वायु गतिकी के नियम तुमने बनाए हैं, उनके अनुसार मेरा शरीर उड़ान भरने के लिए फिट नहीं है। लेकिन इसके बावजूद मैं बड़ी शान से उड़ता फिरता हूं। अब भला सोचो कि कितनी महान है तुम्हारी अक्ल, जो मुझ नन्हें से जीव के उड़ने की परिभाषा भी न कर सकी।”हंसता हुआ भंवरा पुन- अपनी डाल पर जा बैठा। एक पल केलिए वहां सन्नाटा छा गया। सन्नाटे को तोड़ते हुए शेर ने बात आगे बढ़ाई, “अब तो तुम्हें पता हो गया होगा नादान मनुष्य कि तुम इन जीवों से कितने महानहो? अब ज़रा तुम अपनी घमण्ड की चिमनी से उतरने की कोशिश करो और हमेशा इसबात का ध्यान रखा कि सभी जीवों में कुछ न कुछ मौलिक विशेषताएं पाई जाती हैं। सभी जीव आपस में बराबर होते हैं। न कोई किसी से छोटा होता है न कोई किसी से बड़ा। समझे?”“लेकिन इसके बाद भी यदि तुम्हारा स्वभाव अगर नहीं बदला औरतुम जीव जन्तुओं को सताते रहे, तो तुम्हें इसकी कठोर से कठोर सज़ा मिलेगी।” कहते हाथी ने सलिल को अपनी सूंड़ में लपेटा और ज़ोर से ऊपर की ओर उछाल दिया।सलिल ने डरकर अपनी आंखें बंद कर लीं। लेकिन जब उसने वापस अपनी आंखें खोलीं, तो न तो वह जंगल था और न ही वे जानवर। वह अपने बिस्तर पर लेटा हुआ...“इसका मतलब है कि मैं सपना...” सलिल मन ही मन बड़बड़ाया। उसने अपनी अपनी पलकों को बंद कर लिया और करवट बदल ली। हाथी की कही हुई बातें अब भीउसके कानों में गूंज रही थीं।–––––––––––––(कहानी में दिये गये सभी तथ्य पूर्णत: सत्य एवं प्रामाणिक हैं।)

सम्पर्क सूत्र: पोस्ट बाक्स नं0-4, दिलकुशा, लखनऊ-226002, उत्तर प्रदेश (भारत)ई-मेल: zakirlko@gmail.com वेबपेज: http://alizakir.blogspot.com


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रविवार, 13 अप्रैल 2008

हम यात्रा क्यों करते हैं

लेखक: जी.के. अवधिया

मनुष्य आरम्भ से ही जिज्ञासु प्रवृति का रहा है। नवीनतम दर्शनीय स्थानों की खोज, मनोहर द‍ृश्यों का अवलोकन, नयनाभिराम प्राकृतिक सौन्दर्य का भरपूर रसपान एवं विभिन्न प्रदेशों के निवासियों से मिलना सदा से ही उसे रोमांचित करता रहा है। इसी रोमांच को प्राप्त करने की अभिलाषा मानव को यात्रा तथा पर्यटन की ओर आकर्षित होने के लिये अत्यन्त प्राचीन काल से बाध्य करती रही है।

पर्यटन के प्रति भारत में युगों-युगों से उन्माद छाया रहा है। इसी लिये "तीर्थ-यात्रा" का प्रावधान बना। वाल्मीकि रामायण में के अनुसार 'श्रवण' के पिता 'शान्तनु' तथा उनकी माता दोनों ही नेत्रहीन थे। इसलिये "तीर्थयात्रा" के लिये 'श्रवण' उन्हें काँवर में बिठा कर ले गये थे। देवर्षि नारद की तीनों लोकों की यात्रा के विषय में भला कौन नहीं जानता? प्रतीत होता है कि केवल तीर्थयात्रा को महत्वपूर्ण बनाने के लिये ही 'चार धामों' की स्थापना की गई थी। अपनी विदुषी पत्‍नी 'रत्‍नावली' से तिरस्कृत होने के बाद तथा 'रामचरितमानस' की रचना करने के पूर्व संत श्री 'तुलसीदास' जी ने भी चारों धामों तथा अनेक तीर्थों की यात्रा की थी।

विदेशी भी यात्रा के लिये कम आकर्षित नहीं रहे हैं। ने ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी में ग्रीस के 'हेरोडोटस' अनेक यात्रायें की थीं। चीनी यात्री 'ह्वेन सांग' सातवीं शताब्दी में भारत यात्रा किया था। इतिहास साक्षी है कि क्रिस्टोफर कोलम्बस, मार्को पोलो, ओड़ीसियस, वास्को डी गामा, मैगेलान, प्रेज़ेवाल्स्की, अवानासे निकितिन, तुर हीरडाल, जैक कास्तु आदि अनेक विदेशियों ने देश-विदेश की अनेक लम्बी यात्रायें की हैं।

वैसे तो यात्रा के प्रति प्रत्येक उम्र के व्यक्‍तियों को लगाव होता है, किन्तु बच्चे यात्रा के लिये सर्वाधिक आतुर रहते हैं। छुट्टियों में बाहर जाने के लिये वे इतने उत्तेजित रहते हैं कि महीनों पहले से वे योजना बनाने लगते हैं तथा भावी यात्रा की तैयारी में जुट जाते हैं।

लोग किन कारणों से यात्रा करने के लिये प्रेरित होते हैं?

रोजमर्रा की उबाने वाली जिन्दगी में परिवर्तन लाकर पुनः नई स्फूर्ति पाने के लिये
पर्वतों, नदियों, सागरों, वनों आदि के प्राकृतिक सौन्दर्य का रसपान करने के लिये
पवित्र तीर्थ स्थानों के दर्शन करने के लिये



जी.के. अवधिया हिन्दी के प्रति समर्पित लेखक हैं। लेखक का वेबसाइट - हिन्दी वेबसाइट

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